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रहस्यमाई चश्मा भाग - 53




नत्थू को याद था वह दिन जब उसकी माँ सर पर घड़े में पानी लेकर यशोवर्धन के दालान से ओसारे जा रही थी घड़ा सर से गिरकर फूट गया और उधर से आते यशोवर्धन के पिता फिसल गई तब उन्होंने मां को एक सप्ताह रोज दस सेर जौ पीसने की सजा सुनाई थी और खाना भी सिर्फ दोपहर को प्रतिदिन दो वक्त का चौथाई नतीजा माई ऐसी टूटी की उंसे ठिक होने में महीनों लग गए जब वह स्वंय यशोवर्धन की गायों को लेकर चराने गया जाता था एक दिन जाने कैसे गाय ने पड़ोस के गांव के जगावर के खेत का कुछ हिस्सा चर लिया वह भी इतना मामूली की जो आम बात थी नील गाय और अन्य जानवर रोज कुछ न कुछ नुकसान करते थे यशोवर्धन के पिता ने जगावर कि शिकायत पर नत्थू को पचास डंडे का दंड दिया साथ ही साथ तीन महीने जालिम जगावर के यहां काम कर नुकसान भरपाई के लिए भेज दिया जगावर दस वर्ष के नत्थू से जानवरो से भी बतदर व्यवहार करता था खाने को आधे पेट से भी कम देता था एक दिन जगावर कि मार से भूखा नत्थू सब कुछ छोड़कर भाग गया वह भागते भागते भयंकर जंगलों में पहुच गया वहाँ उसकी मुलाकात मिल्कियत सिंह से हुई जो जंगलों में छिप कर भारत मे सामाजिक न्याय और समानता कि लड़ाई लड़ रहा था,,,,,,


 मिल्कियत नत्थू को देखते ही समझ गया कि वह उज़के मतलब का आदमी है उसने नत्थू को लिखना पढ़ना सिखाया और जमींदारी प्रथा एव सामन्तवाद के भारतीय समाज के प्रति नत्थू के मन मे एक विद्रोही व्यक्तित्व को जन्म दे डाला जगावर के यहां से जब नत्थू लापता हुआ फौरन इसकी जानकारी जगावर ने यशोवर्धन के परिवार को दिया झिनकी और मनोरथ का रो रो कर बुरा हाल था बार बार यही कहते मालिक ऐसा कौन गुनाह हमार नत्थू कर दिया जिसके लिए आपने जगावर जैसे जानवर के हवाले उंसे कर दिया क्या भरोसा यह कही नत्थू को मार बार के फेंक न दिया हो नत्थु को खोजने का बहुत प्रायास यशोवर्धन के परिजनों ने किया मगर उसका पता कही नही लगा पता तब चला जब उसने यशोवर्धन के घर डकैती डाली और पूरे परिवार को लगभग बर्बाद कर दिया,,,,

 यशोवर्धन के परिवार पर समय कि दोहरी मार एक तो भारत कि स्वतंत्रता और धर्म के आधार पर बटवारे के कारण पूर्वी पाकिस्तान के दंगों का दंश इधर नत्थू के प्रतिशोध कि आग में जलकर खाक हो चुका यशोवर्धन की पीढियां एव गांव का अस्तित्व नत्थू इस कदर द्वेष एव प्रतिशोध कि भवना से ग्रसित था जैसे कोई क्रुद्व आहत सिंह कर्दब नत्थू से मिलने के बाद लौटकर एक नए योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया उसने सिंद्धान्त को यकीन दिलाने के लिए की वह लावारिस नही बल्कि उसके पिता जीवित है के लिए मजदूरों एव अपने आदमियों को समझा बुझा कर काम पर लगा दिया और खुद भी सिंद्धान्त से मजदूरों एव मिल विकास हितार्थ वार्ता को आगे बढाने के लिए बार बार मिलता और सुझाव देता सिंद्धान्त किसी भी साजिश से बेफिक्र ईमानदारी से चौधरी साहब के संकल्पों एव निर्देशो पर कार्य कर रहा था।कर्दब जब भी सिंद्धान्त से मिलता सिर्फ एक ही बात पर सारी बातों को केंद्रित कर देता वह बार बार सिंद्धान्त के मन मस्तिष्क पर यह बात बैठाने की कोशिश करता कि महाभरत युद्ध ही इसलिए हुआ था कि अधिकार स्वार्थ और धर्म सांस्कार का परस्पर द्वंद था ना तो पांडव और ना ही कौरव कि उपज ही युद्ध का कारण थी चौधरी साम्राज्य में सिंद्धान्त को खुद मंगलम चौधरी कचरे क़ि ढेर से उठाकर पाला है और अब सुयश पता नही किसकी नाजायज औलाद है! 

जिसे चौधरी साहब सर आंखों पर बैठाते जा रहे है इसलिये सिंद्धान्त को चाहिए कि अपने खून कि वास्तविकता का पता करे क्योकि जब मंगलम चौधरी के साम्राज्य के वास्तविक वारिस कि बात हो तो सिंद्धान्त का पलड़ा भारी हो सिंद्धान्त को कर्दब कि बात समझ मे नही आती लेकिन वह कर्दब कि बातों पर गम्भीर अवश्य था वह बार बार यही सोचता कि चौधरी साहब ने उसे कचरे कि ढेर से उठा कर आसमान कि ऊंचाई और प्यार सम्मान सब कुछ तो दिया है और मीमांशा जैसी सूझ बूझ कि जीवन संगिनी का भी चुनाव उज़के लिए चौधरी साहब ने किया था तो क्यो वह उस माता पिता के बारे में जानने कि जहमत उठाये जिन्होंने उंसे पैदा होते ही मरने के लिए छोड़ दिया कर्दब उंसे महाभारत के सबसे प्रभवी पात्र कर्ण कि याद भी दिलाता रहता कर्ण और सिंद्धान्त में एक मूल अंतर था कर्ण का पालन पोषण अन्य के द्वारा हुआ था जबकि सिंद्धान्त को पाला भी चौधरी साहब ने था,,,,

 जिसके कारण उसे बचपन या कभी भी जाति या माँ बाप को लेकर अपमानित नही होना पड़ा था।लेकिन उसे पूरा यकीन था कि उसकी पैदाईस कि असलियत बताने कोई कृष्ण कलयुग में नही आने वाले और चौधरी साहब को उसकी असलियत का उसी की तरह कोई भान नही है।शुभा को नींद में गए लगभग दस दिन बीत चुके थे अब भी वह सिर्फ सुयश और विराज ही बड़बड़ाती कोई लक्षण उसके जागने के नही दिख रहे थे आदिवासी समाज चन्दर के नेतृत्व में हाल चाल शुभा का अवश्य लेता लेकिन सब वेवश विवश सिर्फ समय का इंतजार ही कर सकते थे इसके अलावा कोई रास्ता था ही नही भोजन न करने के कारण शुभा का स्वस्थ निरंतर गिरता जा रहा था एका एक दो सप्ताह बाद शुभा चिल्लाते हुए नीद से जागी बचाओ बचाओ नही तो मेरे भाईयों संकल्प और संवर्धन को मार डालेंगे सर्वानद गिरी और संत समाज खुशी से शुभा के पास गया लेकिन शुभा को अपना पिछला जीवन विल्कुन याद ही नही था उसकी यादाश्त जा चुकी थी वह सिर्फ गुम सुम पत्थर कि मूरत जैसी बन चुकी थी ,,,,

संत समाज और आदिवासी समाज दोनों ने मिलकर विराज और सुयश को उसके स्मरण में लाने की बहुत कोशिश किया किंतु कोई फायदा नही हुआ समस्या पहले से और भी जटिल हो चुकी थी संत समाज शुभा नारी सन्तो के बीच मे रहती अकेली फिर भी वह सीता की तरह रहती लेकिन उसके भविष्य को लेकर संत समाज बहुत चिंतित था तो आदिवासी समाज कि समझ मे भी कुछ नही आ रहा था सभी एक बार पुनः शुभा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते लेकिन वन प्रदेश में उन्हें कोई रास्ता नही सूझता ।



जारी है






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